दिल्ली की गलियों में सुबह का वक्त था। सूरज अभी पूरी तरह निकला भी नहीं था, लेकिन सड़कों पर रौनक शुरू हो चुकी थी। हॉर्न की आवाज़ें, दूध वालों की साइकिलें, और लोगों की भागदौड़ ने पूरे शहर को जगा दिया था।
इन्हीं गलियों में एक पुरानी ठेली धकेलते हुए एक आदमी धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था। उसका नाम था रामलाल।
रामलाल पेशे से सब्ज़ीवाला था। उसकी उम्र लगभग 40 साल होगी, लेकिन चेहरे की झुर्रियाँ और थकान देखकर कोई भी समझ सकता था कि उसने अपनी ज़िन्दगी में जितना संघर्ष किया है, उतना कई लोग पूरी उम्र में भी नहीं करते।
उसकी ठेली पर अलग-अलग सब्ज़ियाँ सजी थीं—टमाटर, आलू, भिंडी, प्याज़, हरी मिर्च, और कभी-कभी मौसम की ताज़ा सब्ज़ियाँ। लेकिन उसका मन हमेशा इस चिंता में डूबा रहता कि आज बिक्री होगी या नहीं।
“ओ भैया… आलू कितने के दिए?”
किसी औरत की आवाज़ सुनकर रामलाल तुरंत मुस्कुराने की कोशिश करता, भले ही थकान से उसका शरीर टूट रहा हो।
“बहनजी… आलू आज 20 रुपए किलो हैं, बहुत ताज़ा माल है, अभी मंडी से लाया हूँ।”
औरत थोड़ी मोलभाव करती, “अरे भैया… कल तो 15 में दे रहा था, आज इतना महँगा क्यों?”
रामलाल गहरी सांस लेता और कहता—
“बहनजी, मंडी में भाव ही बढ़ गया है। हम क्या करें? हमारा भी घर-परिवार है।”
इस तरह हर ग्राहक से उसका रोज़ का युद्ध चलता रहता। लेकिन यही उसका जीवन था, यही उसकी रोज़ी-रोटी।
रामलाल के घर में उसकी पत्नी शारदा, और दो बच्चे थे—बेटा मुकेश और बेटी पूजा। मुकेश 12वीं कक्षा में पढ़ता था और पूजा 9वीं में।
हर रोज़ जब रामलाल शाम को थककर घर लौटता, तो बच्चे दरवाज़े पर दौड़कर उसका इंतज़ार करते। पूजा हमेशा पूछती—
“पापा, आज कितनी कमाई हुई?”
रामलाल मुस्कुराते हुए कहता—
“इतनी कि हम सबकी रोटी आ जाए।”
लेकिन असलियत यह थी कि उसकी कमाई ज़्यादातर घर का किराया, बच्चों की फीस, और रोज़मर्रा की ज़रूरतों में ही ख़त्म हो जाती थी।
शारदा अक्सर चिंतित होकर कहती—
“रामलाल, कब तक ऐसे चलेगा? बच्चों का भविष्य कैसे बनेगा? तू भी तो बूढ़ा हो रहा है…”
रामलाल बस चुपचाप दीवार की ओर देखता रहता। वह जानता था कि उसकी मेहनत का दायरा छोटा है, लेकिन सपने बहुत बड़े हैं।
हर सुबह 3 बजे रामलाल नींद से उठ जाता था। ठेले पर बोरी डालकर वो सब्ज़ी मंडी पहुँचता। वहाँ का नज़ारा अलग ही था—सैकड़ों ठेलेवाले, रिक्शे, ट्रक, और खरीदारों की भीड़।
मंडी में सब्ज़ी लेना आसान नहीं था। बड़े-बड़े थोक व्यापारी वहाँ बैठे रहते और छोटे सब्ज़ीवालों को हमेशा दबाते।
“ओए रामलाल, प्याज़ चाहिए तो 40 का रेट है, नहीं तो निकल जा। हमारे पास और भी खरीदार हैं।”
रामलाल मजबूर था। चाहे महँगा भाव हो, उसे खरीदना ही पड़ता। क्योंकि अगर सब्ज़ी लेकर नहीं जाएगा तो घर कैसे चलेगा?
वो सोचता—“जो आदमी खुद सब्ज़ी बेचता है, वही महँगी सब्ज़ी खरीदने पर मजबूर क्यों है?” लेकिन उसके पास कोई जवाब नहीं था।
रामलाल का बेटा मुकेश बहुत होशियार था। उसे पढ़ाई में गहरी रुचि थी और उसका सपना था कि वह इंजीनियर बने।
एक दिन स्कूल से आकर उसने पापा से कहा—
“पापा, मेरे टीचर ने कहा है कि अगर मैं अच्छे अंक लाऊँ तो मुझे छात्रवृत्ति मिल सकती है।”
रामलाल के चेहरे पर चमक आ गई।
“सच बेटा? तो तू बस पढ़ाई कर… मेहनत कर। पापा तेरे लिए सब करेगा।”
लेकिन मन ही मन वो सोच रहा था—
“फीस, किताबें, कॉपी, कोचिंग… ये सब कैसे दूँगा?”
उसके सपनों और हकीकत के बीच पैसों की दीवार खड़ी थी।
एक दिन अचानक शारदा बीमार पड़ गई। डॉक्टर ने बताया कि उसे ऑपरेशन की ज़रूरत है। खर्च लगभग 40 हज़ार रुपए का था।
रामलाल के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। उसके पास तो मुश्किल से 2000 रुपए भी नहीं थे।
उसने इधर-उधर रिश्तेदारों से मदद माँगी, लेकिन सबने कंधे झाड़ लिए।
“रामलाल, हम खुद परेशान हैं… तुझे कैसे दें?”
आख़िरकार, उसने अपनी ठेली गिरवी रख दी। उस पैसों से ऑपरेशन तो हो गया, लेकिन अब उसके पास सब्ज़ी बेचने का साधन ही नहीं था।
रामलाल की आँखों से आँसू बह निकले।
ऐसे कठिन वक्त में उसकी छोटी बेटी पूजा उसके पास आई।
“पापा, आप रो क्यों रहे हो? आप तो मेरे हीरो हो न… हीरो रोते नहीं।”
उसकी बातें सुनकर रामलाल हँस पड़ा, लेकिन दिल से टूट गया।
पूजा ने अपनी गुल्लक उठाकर कहा—
“ये लो पापा, इसमें मेरे 500 रुपए हैं। मम्मी ने कहा था अच्छे कामों के लिए बचाना… आप ले लो।”
रामलाल ने बेटी को गले से लगा लिया। उसके लिए यही सबसे बड़ी दौलत थी।
रामलाल अब रोज़ मज़दूरी करने लगा। कभी किसी दुकान पर बोरा उठाता, कभी ठेला धकेलता।
एक दिन उसकी हालत देखकर गली के कुछ ग्राहकों ने खुद पैसे इकट्ठे करके उसे नया ठेला दिला दिया।
“रामलाल भैया, आप सब्ज़ी बेचते रहो। आपकी मेहनत पर हम सबको गर्व है।”
रामलाल की आँखें नम हो गईं। उसने सोचा—
“शायद ज़िन्दगी में पैसे से ज़्यादा इंसानियत मायने रखती है।”
धीरे-धीरे रामलाल ने फिर से सब्ज़ी बेचना शुरू किया। अब उसकी सोच बदल चुकी थी। वो केवल अपना घर नहीं देखता था, बल्कि और गरीब बच्चों की भी मदद करता।
मुकेश ने अपनी मेहनत से अच्छे अंक लाए और उसे छात्रवृत्ति मिल गई। उसकी पढ़ाई आगे बढ़ने लगी।
पूजा भी पढ़ाई में तेज थी। उसने पापा से कहा—
“पापा, मैं बड़ी होकर टीचर बनूँगी। मैं चाहती हूँ कि गरीब बच्चों को मुफ्त में पढ़ाऊँ।”
रामलाल के चेहरे पर संतोष था। उसने अपने बच्चों को सिखाया—
“बेटा, मेहनत से बड़ा कोई धन नहीं। और इंसानियत से बड़ा कोई धर्म नहीं।”
कुछ सालों बाद, मोहल्ले में गणतंत्र दिवस पर एक कार्यक्रम हुआ। स्कूल के बच्चों ने भाषण दिया और एक बच्चा मंच पर बोला—
“हमारे मोहल्ले में एक ऐसे इंसान रहते हैं, जिन्होंने हमें सिखाया है कि मेहनत से सब मुमकिन है। वो हैं—रामलाल सब्ज़ीवाले अंकल।”
पूरा मैदान तालियों से गूंज उठा।
रामलाल मंच पर गया, और आँखों से आँसू निकल आए। उसने भीड़ से बस इतना कहा—
“मैं बड़ा आदमी नहीं हूँ, लेकिन चाहता हूँ कि कोई बच्चा भूखा न सोए और कोई सपना अधूरा न रहे।”
उपसंहार
रामलाल की ज़िन्दगी संघर्षों से भरी रही, लेकिन उसने कभी हार नहीं मानी। उसने अपनी मेहनत से अपने बच्चों का भविष्य बनाया और समाज में इंसानियत की मिसाल बन गया।
आज भी अगर आप उस गली से गुजरें तो आपको एक साधारण-सा सब्ज़ीवाला दिखेगा, लेकिन उसकी आँखों में चमक होगी—क्योंकि वो जानता है कि असली अमीरी बैंक के पैसों में नहीं, बल्कि दिलों के विश्वास में होती है।

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