संगर्ष ज़िंदगी का – सुनिल की कहानी
गाँव के एक छोटे से मोहल्ले में, जहाँ मकान पक्के तो थे लेकिन उनमें भी दरारें साफ़ दिखती थीं, वहीं सुनिल का बचपन बीता। उसका घर मिट्टी की खुशबू से भरा रहता था। छत पर पुराने टीन की चादरें पड़ी थीं, जो बरसात आते ही शोर मचाने लगतीं। उस आवाज़ में कई बार सुनिल को नींद नहीं आती थी, लेकिन उसकी माँ धीरे से सिर सहलाकर कह देती –
“सो जा बेटा… ये बरसात का शोर नहीं, ये भगवान का आशीर्वाद है।”
पर सुनिल जानता था कि ये आशीर्वाद से ज्यादा चुनौती है।
बरसात में पानी टपक-टपक कर घर भर देता, माँ-बाप दिन-रात चादर बदलते रहते।
पिता बस कंडक्टर थे। रोज़ाना सुबह तड़के निकलते और देर रात लौटते। हाथ में कुछ नोट थमाकर माँ से कहते –
“इतना ही है, इससे ही घर चलाना पड़ेगा।”
माँ अपने तरीके से जुगाड़ करती – कभी आटे में थोड़ा पानी ज्यादा डालकर रोटियाँ बना लेती, कभी दाल को इतना पतला कर देती कि पूरा परिवार खा सके।
सुनिल सबसे बड़ा बेटा था। उससे छोटे दो भाई-बहन भी थे, जिनकी पढ़ाई की जिम्मेदारी भी उसके सिर पर आ गई।
सुनिल अक्सर अपने दोस्तों को स्कूल बैग, अच्छे जूते और रंग-बिरंगी किताबों के साथ देखता।
उसके पास पुराना बैग था, जो दो बार सिल चुका था। जूते इतने घिस चुके थे कि तलवे में छेद हो गया था।
फिर भी जब वो स्कूल जाता, तो उसके चेहरे पर आत्मविश्वास झलकता।
टीचर कई बार कहतीं –
“सुनिल, तुममें कुछ अलग है, तुम्हारी मेहनत तुम्हें एक दिन बड़ा इंसान बनाएगी।”
लेकिन पेट की भूख किताबों की चमक से ज्यादा भारी पड़ती थी।
कई बार पढ़ाई बीच में छोड़कर पिता की मदद करनी पड़ती, कभी खेतों में, कभी घर के छोटे-मोटे कामों में।
10वीं कक्षा आते-आते हालात और बिगड़ गए। फीस जमा करना मुश्किल हो गया। माँ ने अपने कानों की छोटी-सी बाली तक बेच दी ताकि सुनिल की परीक्षा फीस भर सके।
वो दिन सुनिल कभी नहीं भूल पाया। माँ ने जब कान खाली करके कहा –
“बेटा, ये बाली तो दोबारा आ जाएगी, लेकिन तुम्हारा सपना अगर टूट गया तो कभी पूरा नहीं होगा।”
उस दिन सुनिल ने ठान लिया –
“माँ, मैं हार नहीं मानूँगा। चाहे हालात कितने भी कठिन क्यों ना हों।”
पढ़ाई के साथ-साथ सुनिल ने काम करना शुरू कर दिया।
गाँव के पास ही एक छोटा-सा गैरेज था। वहीं उसने बतौर मेकैनिक हेल्पर नौकरी पकड़ी।
सुबह स्कूल, दोपहर में गैरेज, शाम को होमवर्क – यही उसकी दिनचर्या बन गई।
हाथों पर ग्रीस की परत चढ़ जाती, कपड़े हमेशा मैले रहते। लेकिन जब शाम को 50 रुपये हाथ में मिलते, तो उसे लगता – “मैंने माँ का बोझ थोड़ा हल्का कर दिया।”
गैरेज का मालिक अक़्सर डाँट देता –
“ए सुनिल! ये पाना सही पकड़… ऐसे नहीं, ऐसे पकड़!”
लेकिन सुनिल चुपचाप डाँट सुन लेता।
क्योंकि उसे पता था – डाँट से ज्यादा कीमती वो 50 रुपये हैं, जो घर की रोटी बनेंगे।
हालाँकि हाथ ग्रीस से भरे रहते थे, लेकिन दिल के अंदर एक अलग ख्वाहिश पल रही थी।
गाँव के मेलों में, स्कूल के वार्षिक कार्यक्रमों में जब भी कोई मंच पर नाचता-गाता, सुनिल की आँखें चमक उठतीं।
उसका मन करता – “काश मैं भी मंच पर खड़ा होकर सबका दिल जीत पाता।”
एक बार मौका मिला। स्कूल में नाटक होना था। टीचर ने उसे छोटा सा रोल दिया – एक सिपाही का।
वो दिन सुनिल की ज़िंदगी का टर्निंग पॉइंट था।
जब स्टेज पर उसने अपनी दो लाइनें बोलीं और दर्शकों से तालियाँ बजीं, तो उसके रोंगटे खड़े हो गए।
वो तालियाँ उसके दिल में गूंजती रहीं –
“यही है मेरी असली पहचान।”
सुनिल अब दो ज़िंदगियाँ जी रहा था –
एक, जिसमें पेट पालने के लिए गैरेज की मशीनें और ग्रीस था।
दूसरी, जिसमें दिल को तसल्ली देने के लिए मंच और एक्टिंग थी।
उसने ठान लिया –
“एक दिन मैं बड़ा एक्टर बनूँगा। चाहे इसके लिए कितनी भी मेहनत क्यों न करनी पड़े।”
सुनिल अब 17 साल का हो चुका था।
सुबह की घंटी के साथ ही उसकी दिनचर्या शुरू हो जाती –
- सुबह 6 बजे उठना
- 7 बजे तक स्कूल पहुँचना
- दोपहर 1 बजे घर आकर जल्दी से खाना खाना
- फिर 2 बजे से शाम 8 बजे तक गैरेज में काम
गैरेज की मशीनों का शोर उसके कानों में हमेशा गूंजता रहता।
हाथों में पाना, पैरों में थकान और माथे पर पसीना – यही उसकी रोज़मर्रा की पहचान थी।
लेकिन जब रात को थकान से टूटता हुआ घर लौटता और बिस्तर पर लेटता, तब उसकी आँखें बंद नहीं होतीं।
वो आँखें देखतीं – चमकदार रोशनी, स्टेज, पर्दा और तालियाँ।
गैरेज मालिक, जिसका नाम मोहन काका था, अक्सर कहता –
“लड़के, मेहनत से बड़ा कुछ नहीं। पढ़ाई छोड़ दे, मेरे साथ रह, एक दिन बड़ा मिस्त्री बनेगा।”
लेकिन सुनिल जानता था कि उसका सपना सिर्फ़ गाड़ियाँ ठीक करने का नहीं है।
वो जब भी किसी टूटी गाड़ी को ठीक करता, मन ही मन सोचता –
“काश, ऐसे ही मैं अपनी ज़िंदगी भी जोड़ पाता… जैसे सपनों को जोड़ रहा हूँ।”
अक्सर दिनभर की थकान के बाद 70-80 रुपये मिलते। घर जाकर माँ के हाथ पर रखता और कहता –
“माँ, आज ज्यादा मिला है।”
लेकिन माँ का दिल जानता था कि ये पैसों से ज्यादा उसके बेटे के पसीने की कीमत है।
एक दिन स्कूल में वार्षिक समारोह की तैयारी हो रही थी।
सुनिल ने फिर से नाटक के लिए नाम लिखवा दिया।
इस बार रोल थोड़ा बड़ा था – एक किसान का।
रिहर्सल के दौरान टीचर ने कहा –
“सुनिल, तुम्हारे संवाद बोलने का अंदाज़ गज़ब है, तुम्हें तो रंगमंच पर जाना चाहिए।”
वो शब्द सुनिल के दिल में तीर की तरह चुभ गए – “रंगमंच”…
उस दिन से उसने ठान लिया –
“अब मैं सिर्फ़ पढ़ाई और काम नहीं, बल्कि थिएटर भी जॉइन करूँगा।”
गाँव के पास ही एक छोटे शहर में थिएटर ग्रुप था। सुनिल ने वहाँ जाकर एंट्री लेने की कोशिश की।
पहले दिन उसे देखकर सब हँसे –
“अरे, ये तो मेकैनिक का लड़का है, इसमें एक्टर बनने का दम कहाँ से आएगा?”
लेकिन सुनिल ने हार नहीं मानी।
वो रोज़ वहाँ जाता, छोटे-मोटे काम करता – स्टेज सजाता, कुर्सियाँ लगाता, पानी लाता।
धीरे-धीरे लोगों ने उसकी लगन देखी और उसे छोटे रोल मिलने लगे।
उसके लिए ये छोटे रोल भी बहुत बड़े थे।
जब पहली बार थिएटर के मंच पर उसने दर्शकों के सामने एक्टिंग की, तो तालियाँ सुनकर उसके दिल ने कहा –
“यही है मेरी मंज़िल।”
अब सुनिल की ज़िंदगी और कठिन हो गई।
सुबह स्कूल, दोपहर गैरेज और रात थिएटर।
कभी-कभी तो उसे खाना खाने का भी वक्त नहीं मिलता।
रिहर्सल से लौटते-लौटते रात के 12 बज जाते और अगले दिन फिर वही दौड़।
लेकिन उसकी आँखों की चमक कभी कम नहीं हुई।
उसकी माँ कई बार कहती –
“बेटा, इतना थक जाता है, फिर क्यों करता है ये सब?”
तो सुनिल सिर्फ़ एक लाइन कहता –
“माँ, एक दिन तुम्हें बड़े पर्दे पर मुझे देखना है।”
पिता अक्सर खामोश रहते।
उन्हें लगता था कि बेटा शायद इस थिएटर वगैरह में वक्त बर्बाद कर रहा है।
लेकिन जब सुनिल घर के खर्च में पैसे देता, तो उनकी आँखें भर आतीं।
वो कुछ नहीं कहते, लेकिन उनके दिल में भी उम्मीद जगने लगी थी –
“शायद मेरा बेटा हमसे आगे बढ़ जाए।”
थिएटर करते-करते सुनिल के अंदर आत्मविश्वास आने लगा।
कई बार उसने शहर में फिल्मी शूटिंग भी देखी।
जब कैमरे के सामने एक्टर्स को देखा, तो उसका दिल धड़क उठा।
उसने वहीं ठान लिया –
“अब मुझे मुंबई जाना है। वहीं जाकर अपने सपने पूरे करने हैं।”
लेकिन मुंबई जाना आसान नहीं था।
पैसे चाहिए थे, हिम्मत चाहिए थी, और सबसे बड़ा – माँ-बाप को मनाना था।
उसने धीरे-धीरे गैरेज और थिएटर से पैसे बचाने शुरू किए।
कभी खाने पर कटौती करता, कभी अपने लिए कपड़े नहीं खरीदता।
हर सिक्का उसके लिए सोना बन गया।
जब आखिरकार उसने घरवालों को बताया कि वह मुंबई जाना चाहता है, तो घर में सन्नाटा छा गया।
माँ रोने लगी –
“मुंबई बहुत बड़ा शहर है बेटा, वहाँ अकेले कैसे रहोगे?”
पिता ने बस इतना कहा –
“अगर जाना ही है, तो जीतकर लौटना।”
उस रात सुनिल ने माँ के आँचल में सिर रखकर कहा –
“माँ, मैं लौटूँगा… लेकिन एक्टर बनकर।”
सुनिल ने जब पहली बार मुंबई जाने की बात घर में कही, तो सन्नाटा छा गया।
माँ की आँखें भर आईं –
“मुंबई बहुत बड़ा शहर है बेटा, वहाँ लोग रुकते नहीं, कोई किसी का सहारा नहीं बनता।”
पिता ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा –
“जाना है तो जा, लेकिन लौटकर आना… हारकर नहीं, जीतकर।”
उस रात सुनिल देर तक छत पर बैठा आसमान देखता रहा।
सितारे उसे ऐसे लग रहे थे जैसे हर तारा कह रहा हो –
“आजा, तेरे लिए भी जगह है।”
अगली सुबह ट्रेन में बैठते वक्त उसने माँ का हाथ कसकर पकड़ा।
माँ ने रोते हुए उसके माथे को चूमा और कहा –
“बेटा, कभी भूखा रह लेना, लेकिन झूठ मत बोलना।”
सुनिल मुस्कुराया, लेकिन दिल में जानता था कि शायद ये झूठ ही उसकी आदत बन जाएगा।
मुंबई सेंट्रल स्टेशन पर जब ट्रेन रुकी, तो सुनिल की आँखें चौंधिया गईं।
लोगों की भीड़, भागते कदम, अनजानी आवाज़ें – जैसे किसी और ही दुनिया में आ गया हो।
उसने अपना छोटा सा बैग कसकर पकड़ रखा था।
बैग में बस दो जोड़ी कपड़े, माँ की दी हुई भगवान की छोटी सी मूर्ति और कुछ गिने-चुने रुपये।
सुनिल ने सोचा था कि मुंबई में उतरते ही कोई उसका इंतज़ार करेगा, कोई उसे रास्ता दिखाएगा।
लेकिन यहाँ हर कोई अपनी ही दौड़ में लगा था।
वो खुद से बोला –
“यही है सपनों का शहर… जहाँ सपने पूरे होते हैं, लेकिन किसी के लिए रुकता नहीं।”
पहला दिन ऐसे ही बीत गया। सुनिल ने सोचा – “पहले एक कमरा ढूँढूँगा, फिर आगे की सोचूँगा।”
लेकिन कमरा खोजना आसान नहीं था।
हर जगह वही सवाल –
“कहाँ से आए हो? कितना कमाते हो? गारंटी कौन देगा?”
उसके पास कोई जवाब नहीं था।
तीन दिन तक उसने स्टेशन के पास प्लेटफॉर्म पर ही रात गुज़ारी।
भूख लगी तो स्टेशन की चाय और पाव खाकर पेट भरा।
रात को सिकुड़कर सोता ताकि किसी की नज़र न पड़े।
तीन दिन बाद आखिरकार एक छोटे से कमरे में जगह मिली।
कमरा इतना छोटा था कि उसमें सीधा लेटना मुश्किल था। दीवारों पर नमी जमी हुई थी, छत से पंखा लटक रहा था जो आधा टूटा हुआ था।
लेकिन सुनिल ने मुस्कुराते हुए कहा –
“यही है मेरा महल… यहीं से सपनों की उड़ान भरूँगा।”
कुछ महीने तक तो उसके पास जमा किए हुए पैसे थे।
वो पैसों को ऐसे गिनता जैसे कोई खज़ाना गिन रहा हो।
हर रुपये को मोड़-मोड़कर सीधा रखता ताकि ज़्यादा समय तक चले।
लेकिन जैसे-जैसे दिन बीते, पैसे कम होते गए।
अब हर खर्च उसे भारी लगने लगा।
किराया, खाना, आने-जाने का किराया – सब मिलाकर जेब खाली हो जाती।
कभी ऐसा होता कि पूरा दिन बस एक चाय और बिस्किट पर गुज़ार देता।
रात को जब पेट मचलता, तो पानी पीकर सो जाता।
सबसे कठिन पल तब होता जब घर से फोन आता।
माँ पूछती –
“बेटा, खाना खाया? क्या खाया?”
सुनिल हँसते हुए कहता –
“हाँ माँ, आज तो बढ़िया सब्ज़ी बनाई थी।”
लेकिन फोन रखते ही उसकी आँखें भर आतीं।
पेट में जलन होती, आँखों में आँसू, और होंठों पर झूठी मुस्कान।
उस रात वो खुद से कहता –
“माँ को सच बता दूँ… कि बेटा भूखा है।”
लेकिन फिर खुद ही चुप हो जाता।
क्योंकि अगर माँ को पता चलता, तो वो बेचैन हो जाती।
मुंबई ने उसे बहुत जल्दी सिखा दिया कि यहाँ कोई किसी का नहीं है।
भीड़ में वो खुद को और अकेला महसूस करता।
दिनभर सड़कों पर घूमता, ऑडिशन ढूँढता, दरवाज़े खटखटाता, लेकिन हर जगह एक ही जवाब –
“फिलहाल ज़रूरत नहीं।”
कभी-कभी वो सोचता –
“क्या मैंने गलती कर दी यहाँ आकर?”
लेकिन अगले ही पल उसके कानों में थिएटर की तालियाँ गूंजने लगतीं।
वो खुद को संभालकर कहता –
“नहीं, यही मेरा रास्ता है। चाहे जितनी मुश्किल हो, मैं यहीं जीतूँगा।”
मुंबई की रातें लंबी थीं।
कभी छत पर लेटकर आसमान देखता, तो सोचता –
“यहीं कहीं लाखों लोग हैं जो मेरे जैसे सपनों के लिए आए होंगे… कुछ जीतेंगे, कुछ हारकर लौटेंगे। मैं किसमें रहूँगा?”
लेकिन फिर उसकी आँखों में वही चमक लौट आती।
उसकी मुट्ठियाँ कस जातीं और दिल कहता –
“मैं हारने वालों में नहीं हूँ। चाहे भूख लगे, चाहे आँसू आएँ, मैं एक दिन ज़रूर जीतूँगा।”

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